Sunday 25 January 2015

समकालीन समाज में अभिव्यक्ति की आज़ादी



समकालीन समाज में अभिव्यक्ति की आज़ादी
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है | समाज को देखकर ही उसमे विभिन्न संवेदनाएं आती है | वह अपने विचारों को प्रकट करना चाहता है, वह चाहता है की उसकी बात सुनी जाए | आदि काल से ही मनुष्य अभिव्यक्ति की आज़ादी को लेकर प्रगतिशील रहा है | समय के साथ सिर्फ माध्यम बदले हैं | अजंता एलोरा के भित्ति चित्र आज भी हज़ारों वर्ष पूर्व के मानव की मनोदशा को बोलते से प्रतीत होते हैं तो अशोक के शिलालेख मानों आज भी बड़े धर्मविजय का प्रचार बड़े धीरोदात्त ढंग से कर रहे हैं | ताज महल की इबारतें आज भी हमें पांच सौ वर्ष पूर्व पहुंचा देती है जब फारसी, मुग़ल और राजपूत स्थापत्य कला रासायनिक घोल की तरह घुल सी गयी थी | वेदों की ऋचाएं आज भी ताम्र पत्रों के रूप में सुरक्षित हैं तो ये सारे अनुभव मनुष्य की उस उत्कंठा को ही दर्शाते हैं जो चिर काल से मनुष्य के संचित मन में जाग्रत रही है और वह है अभिव्यक्ति | मनुष्य स्वयं की भावनाओं को अभिव्यक्त करना चाहता है | माध्यम चाहे बोलकर हो. चित्रकला हो या लेखन कला के माध्यम से | उत्तरोत्तर मनुष्य विकास करता गया तो उसकी आवश्यकाताएं स्थूल ही नहीं रही | अब मनुष्य ज्यादा से ज्यादा ज्यादा स्वयं को अभिव्यक्त करने लगा किन्तु यहीं सबसे बड़ा पेंच फंसना शुरू हुआ |
                     जब मनुष्य स्वयं को अभिव्यक्त करने लगा तो यह स्वाभाविक था की बहुत से लोग शायद उस भावना या अभिव्यक्ति को उस विचार को स्वयं के विचार के विपरीत पाएं | यह संघर्ष और तनाव आज का नहीं है | सुकरात को सिर्फ इसलिए विषपान करना पड़ा था तो गलिलियो को भी अपने विचारों और व्यक्तव्यों के लिए खेद प्रकट करना पड़ा था तभी उसे जीवन दान मिला था |
                     किन्तु हालिया दिनों में ये विवाद बहुत बढ़ गए हैं | इसका कारण है की लोगों के पास सम्प्रेषण के बहुत से माध्यम हैं और वे संचार क्रान्ति के इस दौर में बहुत तेज़ी से फैलते हैं | यदि हाल के कुछ विवादों पर नज़र डालें तो यह साहित्य, क़ला, संस्कृति, पत्रिकाओं हर क्षेत्र से जुड़े हैं | साहित्य के क्षेत्र में सलमान रश्दी, तस्लीमा नसरिम, मुरुगन के रूप में एक लम्बी फेहरिस्त है तो फिल्मों में भी सूची कोई छोटी नहीं है जोधा अकबर , PK, ब्लैक फ्राइडे जैसी फिल्में तो एक बानगी भर हैं | अखबारों के सम्पादकीय और कार्टून भी गाहे बगाहे तनाव उत्पन्न करने का माध्यम बनते हैं | इन्ही विवादं के कारण ख्यातनाम कलाकार मकबूल फ़िदा हुस्सेंन को अपने जीवन का संध्याकाल एक गैर मुल्क में गुज़ारने को मजबूर होना पड़ा था | एक तरफ तो अभिव्यक्ति की आज़ादी को मुखर रूप से उठाने वालों की एक बड़ी तादाद है तो दूसरी और उन लोगों की भी कमी नहीं है जो भावनाओं के आहत होने तथा युक्तियुक्त्पूर्ण बंधन की मांग करते हैं | आइये इन दोनों बिन्दुओं पर बारी बारी से विचार करते हैं और देखने का प्रयास करते हैं की वर्तमान परिपेक्ष्य में क्या कोई हल संभव है |
                     अभिव्यक्ति की आज़ादी एक मूल अधिकार है जिस तरह से मनुष्य को भोजन की आवश्यकता होती है उसी तरह से मनुष्य के वैचारिक पोषण के लिए आवश्यक है की उसे स्वतंत्रता मिले – अपने विचारों को, अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने की | इतिहास ऐसे ऊदाहरानो से भरा पड़ा है जब महापुरुषों ने अभिव्यक्ति की आज़ादी को मुखर होकर उठाया है | गैलिलिओ को सिर्फ इसीलिए यदि चुप करा दिया जाता की उसके विज्ञान सम्बन्धी निष्कर्ष धर्माधिकारियों के खिलाफ हैं तो मानव जाती उनकी महान खगोलीय खोजों से वंचित रह जाती | फ्रांस और अमेरिका की क्रान्ति का तो आदर्श ही भात्रत्व, समानता और स्वतंत्रता थी | स्पष्ट है की वे स्वतंत्रता एक ऐसा आदर्श मानते थे जिसके लिए संघर्ष किया जा सकता है | फ्रांस की क्रान्ति को तो वैचारिक ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से मिला था | उन विचारकों का सार यही था की जब मनुष्य का जन्म स्वतन्त्र होता है तो विभिन्न मान्यताओं के नाम पर उस पर बेड़ियों का बंधन क्यों लगा दिया जाता है |
                     तो इस बात से सहमत नहीं हुआ जा सकता है की अभिव्यक्ति की आज़ादी महत्वपूर्ण है किन्तु निष्कर्ष पर पहुचने से पहले दुसरे पक्ष पर भी ध्यान देना समीचीन रहेगा | अभिव्यक्ति की आज़ादी की महत्ता तभी रहेगी जब हम ऐसे समाज में रहते हो जहां सभी बौद्धिक रूप से परिपक्व हों वे इतने खुले विचारों वाले हों की नए विचार को सहर्ष रूप से स्वीकार न भी करें तो जैसा वाल्टेयर का प्रसिद्द कथन है की –“हो सकता है की में आपके विचारों से सहमत न हो पाऊं परन्तु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के आपके अधिकार का सम्मान मैं सदैव करूँगा” तो जब समाज में कुछ विचार विशेष से अराजकता फैल जाती हो समाज का ताना बाना क्षत विक्षत होने का खतरा हो तो वहाँ हर प्रकार के विचार को सिर्फ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर प्रवाहित होने दिया जा सकता है क्या | यह एक गंभीर प्रश्न है |
                     तो अब समाधान के लिए हमें हमारे संविधान पर एक नज़र डाल लेनी चाहिए वह क्या कहता है | हमार संविधान अभिव्यक्ति की आज़ादी पर युक्ति युक्त प्रतिबन्ध लगाने की बात करता है तो अगला प्रश्न होगा क्या युक्ति युक्त होगा | यह निर्णय कोन करेगा की किस अभिव्यक्ति को युक्ति युक्त बंधन के नाम पर रोका जाए | यह किसके विवेक पर छोड़ा जाए | किसका विवेक यह लक्षमण रेखा खींचेगा और निर्णय देगा की किस हद तक आप सम्पादकीय लिख सकते हो और आप कार्टून बना सकते हो की आपकी स्वयं की जान सांसत में न आये | स्पष्ट है की विवेक का दायरा बहुत बड़ा होता है और भावनाओं के आहात होने के नाम पर हम विचारों को दबा नहीं सकते हैं | यह संभव है की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर ज़हरीले विचारों की बाढ़ आ जाए परन्तु यदि इसमे एक भी नवाचार का विचार हो जिसे दबा दिया जाए नार्मन बोर्लोग के विचार संकर बीज को यदि शैशव अवस्था में ही पर्यावरण आदि के नाम पर दबा दिया जाता तो क्या करोड़ों लोगों को भुखमरी से बाहर ला पाना संभव हो पता | न्यूटन के विचार को सिर्फ इसलिए दबा दिया जाता की वे किसी धर्माधिकारी के विचारों के सांगत नहीं है तो मानवता उनके महान कार्यों से वंचित रह जाती |
                     आज़ादी के पूर्व यही तनाव और दुविधा इकबाल को यह लिखने के लिए बाध्य करती है की “बोल की लब आज़ाद हैं तेरे” अर्थात यदि प्राणवान मनुष्य हो तो अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का महत्व समझो | स्पष्ट है की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक जीवन अमृत है जिसे किसी भी मनुष्य से छीना नहीं जा सकता है | अभिव्यक्ति की आज़ादी पर और प्रतिबन्ध लगाने की अपेक्षा हमें समाज में ऐसा वातावरण बनाना होगा जो की उसे सिर्फ एक विचार समझे जिसे यदि नापसंद करते हो तो बस उसे किताब की एक इबारत मानकर आगे बढ़ चलो | हमें आवश्कयता है की हम सामजिक सौहाद्र का वातावरण बनाएं लोगों को जागरूक करें इस सम्बन्ध में विभिन्न वर्गों से ज्यादा से ज्यादा संपर्क बढ़ाना चाहिए जो उस महान विचार – अभिव्यक्ति की आज़ादी को और आगे ले जाए न की उस पर प्रतिबन्ध लगाए |  

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