Monday 14 September 2015

“I object to violence because, when it appears to do good, the good is only temporary; the evil it does is permanent.”



“I object to violence because, when it appears to do good, the good is only temporary; the evil it does is permanent.”
 मुझे हिंसा पर आपत्ति है ; जब यह अच्छा करती हुई प्रतीत होती है, अच्छाई केवल अस्थायी है, इसके द्वारा की गयी बुराई स्थायी है।

प्रकृति सर्वत्र विषमताओं से भरी पड़ी है दार्शनिकों के दर्शन, साहित्यकारों की रचनाओं, मानव के परिवेश से लेकर प्रकृति के स्वयं के स्वरूप में भी विषमता का ही स्पंदन होता है | इसी विषमता के आधार तथा मानवीय संवेगों की चेतना के कारण समय के साथ मानव का अपनी परम्पराओं को दूसरों पर थोपने का प्रयास तो कभी अपनी विचारधारा की मिथ्या प्रवंचना या कभी शक्ति का लोभ उसे हिंसा के मार्ग की और धकेलता आया है, हिंसा का मार्ग कभी कभी बहुत स्वाभाविक तथा आसन भी लगता है क्यूंकि इसमें विवेक अक्सर कहीं खो जाता है और पूरी गुंजाइश होती है की अन्य मानवीय गुण भी लुप्त हो जाएँ |
       हिंसा के मार्ग की पैरवी करने वालों की लम्बी फेहरिस्त रही है | इतिहास हिंसा के रक्त रंजित पन्नों से भरा पड़ा है तो हमें हिंसा के परिमाणों पर विचार करते हुए इसकी प्रासंगिकता पर ज़रूर विचार करना चाहिए |
       हिंसा कई बार अवश्यम्भावी लगती है यह कई बार प्रतिकार के रूप में भी सामने आती है | राम-रावण, कौरव-पांडव से लेकर आधुनिक युद्धों तक कई बार हमें एक पक्ष की न्यायप्रियता को लेकर आश्वस्ति का भाव आता है और प्रतीत होता है की धर्म की रक्षार्थ हिंसा अनिवार्य है किन्तु हिंसा के परिणाम सदैव निरपेक्ष होते हैं | चाहे युद्ध कितने भी बड़े प्रयोजन को लेकर लड़ा गया हो |
       हिंसा के लाभ अक्सर तात्कालिक होते हैं | इसके लाभों में सबसे मुखर है – तात्कालिक शान्ति | दूसरे पक्ष की तात्कालिक शक्तिहीनता ही तात्कालिक शान्ति का मार्ग भी प्रशस्त करती है | जैसा की प्रथम विश्व युद्ध के बाद का जर्मनी का उदाहरण है | हिंसा के बाद कई बार हमें दुर्दांत शासन या प्रतिद्वंदी से मुक्ति भी मिल जाती है | रूस की क्रान्ति के बाद ज़ारशाही का पतन ऐसा ही उदाहरण है | हमारा समकालीन इतिहास ऐसे उदाहरणों से पटा पड़ा है – लीबिया युद्ध, सद्दाम पतन, मिश्र क्रान्ति |
       युद्ध अपने साथ इतनी विभीषिका लाता है की तात्कालिक रूप से मानव हिंसा से घृणा करने लगता है | यह मसला मनुष्य की मनोवृत्ति से जुड़ा हुआ भी है | अक्सर आम जीवन में भी हिंसा से भरे अखबार के पन्ने पलटते हुए हम क्षण भर के लिए विषाद से भर उठते हैं | तात्कालिक रूप से हिंसा से कोई एक पक्ष तो लाभान्वित होता ही है, चाहे हिंसा किसी भी रूप में हो | विश्व युद्ध के समय भी कई देशों की अर्थ व्यवस्थाएं कुलांचें भरने लगी थी | हिंसा कई बार नवाचार का मार्ग प्रशस्त करती है जैसा द्वितीय विश्व युद्ध के समय हुआ | हिंसा के बाद विजयी पक्ष को कुछ समय के लिए अपने पौरुष का दंभ होने लगता है | इस प्रकार हिंसा के कुछ सकारात्मक पक्ष दिखाई पड़ते हैं किन्तु सिर्फ सतही द्रष्टि से देखने वालों को ही ये नज़र आते हैं थोड़ी सी गहरी द्रष्टि डालने पर साफ़ द्रष्टिगत होता है की उक्त परिणाम सिर्फ तात्कालिक हैं, सिर्फ नवाचार से सम्बद्ध खोजों को छोड़कर किन्तु यह भी महज एक संयोग है वरना नवाचार का हिंसा से कोई सम्बन्ध नहीं है | अतः स्पष्ट है की हिंसा के अगर कुछ लाभ दीखते भी हैं तो सिर्फ तात्कालिक हैं |
       अब इसके नकारात्माक परिणामों पर विचार करते हुए इसकी कालावधि और परिणाम पर विचार करते हैं | हिंसा के बाद जो सबसे स्वाभाविक परिणाम होता है वह है- प्रतिहिंसा | हर हिंसा अपना प्रत्युत्तर प्रतिहिंसा से देती है और वह भी अपने ज्यादा दुर्दांत रूप में | प्रथम विश्व युद्ध की प्रतिक्रिया द्वितीय विश्व युद्ध, इराक युद्ध का परिणाम ISIS | कई बार तो इससे हिंसा का एक आवर्ती चक्र कायम हो जाता है | जो की किसी भी रूप में अच्छा नहीं कहा जा सकता है | हिंसा में हम अपने ज़रूरी संसाधनों का अपव्यय कर देते हैं कई बार हिंसा सिर्फ आवेगों का परिणाम मात्र होती है परन्तु उसके परिणाम चिर काल तक्रहते हैं | क्षण भर में ही हिरोशिमा नागासाकी जैसे हंसते खेलते शहर विनाश की धुल में समाहित हो गए | यह एक ऐसी विनाश लीला थी जिसने पूरे विश्व को झकझोर दिया और जापान की स्वयं की नीतियाँ सदैव के लिए बदल गयी | हिंसा में संसाधनों का प्रभूत पैमाने पर अपव्यय होता है | जो खर्चा देशों को अपने नागरिकों की शिक्षा, स्वास्थ्य पर करना चाहिए वह खर्च रक्षा सम्बन्धी अपव्यय पर करने लगते हैं | यह महज संयोग नहीं है की जो क्षेत्र युद्ध और हिंसा में उलझे हुए हैं वे ही देश गरीबी और अन्य मानवीय वंचनाओं से भी ग्रसित देश हैं | विडम्बना है की वर्तमान वैश्विक स्वास्थ्य बजट अपने रक्षा बजट का महज 1 फ़ीसदी है |
       हिंसा मानवीय विवेक को घुन लगा देता है | हिंसा पर उतारू मनुष्य स्वयं की हानि पर भी अपने प्रतिद्वंदी की हानि पर आमादा रहता है | वर्ना विवेकशील स्तर पर हिंसा का कोई कारण ही नहीं बनता है | हिंसा का सबसे ज्यादा शिकार वे होते हैं जो कमज़ोर और वंचित वर्ग के होते हैं, भले ही हिंसा से उनका कोई सरोकार न हो | हिंसा से पीड़ित व्यक्ति के बच्चों और घरवालों को भी एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है | हिंसा से ग्रस्त बालकों पर इसके अप्रतिम प्रभाव पड़ते हैं, उनकी मनोवृत्ति सादा के लिए घृणा से भर उठाती है | घृणा से भरे बचपन की कीमत पूरे समाज को चुकानी पड़ती है | युद्ध के बाद पीड़ित व शोक संसप्त परिवारों की लड़ाई भी कोई युद्ध से कम नहीं होती है | बस वह एक अलग ही मोर्चे पर लड़ी जाती है- संवेदनाओं के मोर्चे पर | 
                हिंसा की वेदी पर सबसे पहले जिसकी बलि चढ़ती है वह है- मानवता |मानव अपनी सारी संवेदनाओं मानवोचित गुणों को ताक पर रख देता है और बाद में अनंत काल के लिए उस पर पश्चाताप करता है, क्यूंकि किसी भी स्तर पर हो या किसी भी रूप में हो हिंसा के परिणामों से कोई भी पक्ष विमुख नहीं हो सकता | संततियों तक को उसके परिणाम भुगतने पड़ते हैं |
       हिंसा के परिणामों की भयावहता तथा परिणामात्मक के कारण ही सभी धर्म, महापुरुष हिंसा के प्रति निषेध रखते आये हैं | बुद्ध ने तो कहा भी है असली विजय वही विजय है जिसमे कोई पराजित नहीं होता | बुद्ध का यहाँ यही आशय है की यदि कोई भी पराजित होता है तो वह एक नयी प्रतिद्वंदिता को जन्म देता है | स्पष्ट है की धर्म की यह बात मनोवैज्ञानिक स्तर पर कही गयी है | गाँधी ने तो हिंसा को मन और वचन के स्तर पर भी निषेध किया है क्यूंकि हिंसा के प्रारम्भिक स्रोत वैचारिक स्तर पर ही होते हैं | इनके परिणामों के बारे में निरंकुश तानाशाह स्टालिन का यह कथन प्रासंगिक है- एक व्यक्ति की मृत्यु दुःख का विषय है परन्तु एक लाख लोगों का मरना एक आंकड़ा है | स्पष्ट है की हिंसा में सबे पहले सबसे बड़े परिमाण पर मानवता मरती है | जिसका कोई मूल्य नहीं है |

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